की मंजिल नज़र आती है
रुके है ऐसे दोराहे पर
अब राह चुनी नहीं जाती है
खुद को मानने को बच्चा
तैयार नहीं थे हम कभी
अब जिम्मेदार बड़प्पन से
आँखे शरमा जाती है
ताने लगती थी नसीहते
बड़ो की कभी
अब यकायक वाही नसीहते
हमें संभाल जाती है
जीवन मूल्यों को
किताबो के अक्षर मात्र समझते थे हम
अब समझे की इन्हें पाने में
जिंदगी निकल जाती है
सोच न थी की कर्त्तव्य समझ बैठे
माँ बाप की मेहनत को
आज उनकी हर हरकत में
निस्वार्थ पवित्रता नज़र आती है
मंजील नज़र आती है
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