Sunday, February 21, 2010

MANJIL

खड़े है इस मुकाम पर
की मंजिल नज़र आती है
रुके है ऐसे दोराहे पर
अब राह चुनी नहीं जाती है

खुद को मानने को बच्चा
तैयार नहीं थे हम कभी
अब जिम्मेदार बड़प्पन से
आँखे शरमा जाती है

ताने लगती थी नसीहते
बड़ो की कभी
अब यकायक वाही नसीहते
हमें संभाल जाती है

जीवन मूल्यों को
किताबो के अक्षर मात्र समझते थे हम
अब समझे की इन्हें पाने में
जिंदगी निकल जाती है

सोच न थी की कर्त्तव्य समझ बैठे
माँ बाप की मेहनत को
आज उनकी हर हरकत में
निस्वार्थ पवित्रता नज़र आती है
मंजील नज़र आती है

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